हक व बातिल की मिलावट  

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सच और झूठ की मिलावट कर देना

(हुज्जतुल इस्लाम इमाम मोहम्मद गज़ाली र.अ. की किताब मुकाशफतुल क़ुलूब से हिंदी अनुवाद)

 फ़रमाने नबवी है : जिसे माअकिल बिन यसार रज़ीअल्लाहो अन्हो ने रिवायत किया है कि लोगों पर ऐसा जमाना आएगा जब लोगों के दिलों में कुरआने मजीद बदन के कपड़ों की तरह पुराना हो जाएगा उन के तमाम अहकामात तुम्अ (लालच) पर मबनी होंगे, किसी के दिल में खौफे खुदा नहीं होगा, अगर उन में से कोई एक नेकी करेगा तो कहेगा : येह मुझ से कबूल कर ली जाएगी और अगर बुराई करेगा तो कहेगा : येह बख्श दी जाएगी। हुजूर सल्लल्लाहो अलैह व सल्लम ने बताया कि वोह खौफे खुदा की बजाए तम्अ-लालच  रखेंगे।

क्यूंकि कुरआने मजीद की उन तम्बीहात से जिन में इन्सानों को अज़ाब से खौफ़ दिलाया गया है, उन को बिल्कुल इल्म नहीं होगा, इसी आदत और इस जैसी दूसरी आदतों की वज्ह से अल्लाह तआला ने नसारा के मुतअल्लिक इन अल्फ़ाज़ में खबर दी है कि “पस उन की जगह उन के बुरे जा निशीन बैठे जो किताब के वारिस हुवे वोह नाक़िस या’नी हराम अस्बाब को लेते हैं और कहते हैं अलबत्ता हम को बख्श दिया जाएगा”। इस की तफ्सीर येह है कि उन के उलमा किताबे इलाही के वारिस हुवे मगर उन्हों ने दुन्या की ख्वाहिशात से मुरस्सअ माल कमाना शुरू कर दिया ख़्वाह वोह हलाल हो या हराम और येह कहा कि हमें अल्लाह बख़्श देगा हालांकि फ़रमाने इलाही है :

“और उस शख्स के लिये जो अपने रब के हुजूर खड़ा होने से डरा दो जन्नतें हैं।” मजीद फ़रमाया :

“येह (जन्नत) उस शख्स के लिये है जो मेरे हुजूर खड़ा होने से डरा और मेरी तहदीद से खौफ़ज़दा हुवा है।”

कुरआने मजीद में अव्वल से आखिर तक लोगों को ख़ौफ़ दिलाया गया है, उन्हें डराया गया है इस में जब कोई सोचने वाला गौरो फ़िक्र करता है तो उस का हुज्नो मलाल बढ़ता है, अगर वोह मोमिन है तो उस का इस में गौरो फ़िक्र करने से खौफ फुजू तर होता है मगर तुम लोगों को देखते हो, इसे जल्दी जल्दी पढ़ते हैं, इस के हुरूफ़ के मख़ारिज निकालते हैं, इस के ज़बर ज़ेर और पेश में झगड़ते हैं जैसे कि वोह अरब के अश्आर पढ़ रहे हों, वोह इस के मआनी में गौरो फ़िक्र नहीं करते और न ही इस के अहकामात पर अमल की सई करते हैं और दुन्या में इस जैसा या इस से बढ़ कर कोई धोका है कि लोग नेकियां और गुनाह करते हैं, उन के गुनाह नेकियों से जियादा होते हैं मगर वो इस के बा वुजूद बख्शिश की तमन्ना रखते हैं और गुनाहों के पलड़े को भारी समझते हुवे भी वोह नेकियों के पलड़े को भारी होने की उम्मीदें लगाए बैठे हैं, येह उन की जहालत की इन्तिहा नहीं तो और क्या है ?

हराम माल खैरात करने का कोई सवाब नहीं

तुम देखते हो आदमी चन्द हलालो हराम के मिले जुले रूपये  राहे खुदा में देता है और मुसलमानों के माल और मुश्तबा माल से उन के दो गुने चोगुने रूपे खरे कर लेता है और येह भी हो सकता है कि उस का राहे खुदा में खर्च किया हुवा माल भी मुसलमानों के माल से छीना हुवा हो।

और वोह येह गुमान करता है कि खाए हुवे हज़ार रूपये  का येह हराम या हलाल से कमाए दस रूपे जिन को मैं ने राहे खुदा में दिया है, बदला बन जाएंगे, ऐसे शख्स की मिसाल कुछ यूं है कि एक आदमी तराजू के एक पलड़े में दस रूपे और दूसरे में एक हज़ार रूपे रख कर येह तवक्कोअ रखे कि दस रूपे वाला पलड़ा भारी और हज़ार वाला हल्का हो जाएगा और येह उस की जहालत की इन्तिहा होगी, तुम को बा’ज़ ऐसे शख्स भी नज़र आएंगे जिन में से हर एक येह समझेगा कि उस की नेकियां गुनाहों से ज़ियादा हैं, ऐसा शख्स नफ्स का मुहासबा नहीं करता और अपने गुनाहों को तलाश नहीं करता लेकिन जब वोह कोई नेकी करता है, उस पर ए’तिमाद करता है उसे गिन लेता है, ऐसे शख्स की मिसाल ऐसी है जो ज़बान से इस्तिगफार करता है या दिन में सो मरतबा तस्बीह करता है। फिर मुसलमानों की गीबत करता है, उन की इज्जतें पामाल करता है और सारा दिन अन गिनत ऐसी बातें करता है जिन से अल्लाह तआला नाराज़ हो जाता है लेकिन उस की निगाह में वोह सो तस्बीहात गर्दिश करती रहती हैं और सो बार इस्तिगफार करना घूमता रहता है और सारे दिन की लगवियात से गाफ़िल हो जाता है जिन को अगर वोह लिखता तो वोह हर तस्बीह से सो गुना या हज़ार गुना ज़ियादा होतीं, जिन्हें मुहाफ़िज़ फ़िरिश्तों ने लिख लिया है और अल्लाह तआला ने भी हर ऐसे कलिमे पर इक़ाब का वादा किया है चुनान्चे, इरशादे इलाही है :

वोह शख्स तस्बीह व तहलील के फ़ज़ाइल में तो गौर करता है मगर उन वईदों से अपनी आंखें बन्द कर लेता है जो ग़ीबत करने वालों, झूटों, चुगुल खोरों और ऐसे लोगों के मुतअल्लिक वारिद हुई हैं जो ज़बान से कुछ और कहते हैं और दिल में कुछ और कहते हैं इस के इलावा भी तरह तरह की ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन पर गिरिफ़्त होगी और यह दुन्या तो महज़ धोका ही धोका है।

मुझे ज़िन्दगी की कसम ! अगर मुहाफ़िज़ लिखने वाले फ़रिश्ते उस से उन लग़व बातों के तहरीर करने की उजरत तलब करते जो उस की तस्बीहात से ज़ियादा हैं तो वोह अपनी ज़बान को बन्द कर लेता और ऐसी अहम बातें भी न करता जो उस की ज़रूरियात में शामिल होती और न ही वोह ना तुवानी में कोई बात करता वोह हर बात को गिनता, उस का मुहासबा करता और अपनी तस्बीहात से उन का मुवाज़ना करता कि कहीं मेरी बातों की उजरत मेरी तस्बीहात से ज़ियादा न हो जाए, अफसोस तो इस अम्र का है कि इन्सान किताबत की उजरत के सबब तो अपने नफ्स का मुहासबा करे और बोलने में इन्तिहाई एहतियात को पेशे नज़र रखे मगर फ़िरदौसे आ’ला के न पाने और इस की ने’मतों के जवाल को कोई अहम्मिय्यत न दे।

हक़ीक़त तो येह है कि येह चीज़ हर उस इन्सान के लिये अज़ीम मुसीबत है जो गौरो फ़िक्र करने का आदी हो, हमें अल्लाह तआला की तरफ़ से ऐसे काम सोंपे गए हैं कि अगर हम इन का इन्कार कर दें तो ना फ़रमान काफ़िरों में से हो जाएं और अगर इन की तस्दीक करें बा वुजूद येह कि आ’माल का नामो निशान न हो तो हम फ़रेब खुर्दा बे वुकूफ़ कहलाएंगे क्यूंकि हमारे आ’माल वैसे नहीं जैसे आ’माल एक ऐसे शख्स के होने चाहिये जो कुरआने मजीद के अहकामात की तस्दीक करता है (और हम अल्लाह तआला से काफ़िरों में होने से बराअत चाहते हैं)।

-इमाम मोहम्मद गज़ाली र.अ., किताब मुकाशफतुल क़ुलूब

 

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Haram maal, haram ki kamai,

 

 

 

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