सदका खैरात किसे देना चाहिए?

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फजीलते जकात व सलात

(हुज्जतुल इस्लाम इमाम मोहम्मद गज़ाली र.अ. की किताब मुकाशफतुल क़ुलूब से हिंदी अनुवाद)

यह बात समझ लीजिये कि अल्लाह तआला ने ज़कात को इस्लाम की बुन्यादों में से शुमार किया है और इस का ज़िक्र नमाज़ के ज़िक्र के साथ है, नमाज़ जो कि इस्लाम का बुलन्द तरीन शिआर है चुनान्चे, फ़रमाने इलाही है :

“और नमाज़ काइम करो और ज़कात अदा करो”। फ़रमाने नबवी है कि इस्लाम की बुन्याद पांच चीजों पर है, अल्लाह की वहदानिय्यत, मोहम्मद की रिसालत की शहादत, नमाज़ कायम करना और ज़कात अदा करना ।

“और अल्लाह तआला ने दो में तक़सीर करने वालों की वईदे शदीद की है चुनान्चे”|

अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाता है : “पस हलाकत है उन नमाजियों के लिये जो अपनी नमाज़ से बे खबर हैं”। इस बारे में पहले ही मुकम्मल बहूस गुज़र चुकी है और अल्लाह तआला ने अपने कलाम में इरशाद फ़रमाया है :  “और जो लोग सोना चांदी जम्अ करते हैं और इसे अल्लाह की राह में खर्च नहीं करते पस उन्हें दर्दनाक अज़ाब की खुश खबरी दीजिये”। इस आयते करीमा में राहे खुदा में खर्च करने से मुराद ज़कात अदा करना है।

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सदका-खैरात किसे दिया जाए?

सदक़ा देते वक़्त ऐसे नेक अफराद फुकरा तलाश किये जाएं जो दुनिया से तर्के तअल्लुक कर चुके हों और आखिरत से लौ लगाए हुवे हों क्यूंकि ऐसे फुकरा को सदका देना माल को बढ़ाना है, फ़रमाने नबवी है कि परहेज़गार का खाना खा और परहेज़गार को खाना खिला।

आप ने येह बात इस लिये फ़रमाई कि परहेज़गार इस तआम से परहेज़गारी में बढ़ेगा तू भी इस इआनत की वज्ह से उस की इबादतो रियाज़त में शरीक गिना जाएगा।

एक आलिम का कौल है कि सदक़ा देते वक्त सूफ़ी फुकरा को तरजीह दे, किसी ने उस आलिम से कहा कि अगर आप तमाम फुकरा का कहते तो बेहतर होता, आलिम ने कहा : नहीं ! यह सूफ़ी फ़क़ीर एक ऐसा गुरौह हैं जिन की तमाम तर तवज्जोह अल्लाह तआला की तरफ़ मब्जूल रहती है, जब उन में से किसी को फ़ाका से वासिता पड़ता है तो उन की हिम्मतें परागन्दा हो जाती हैं, मुझे उन में से किसी एक फ़क़ीर की तवज्जोह फ़ाक़ा से हटा कर अल्लाह तआला की तरफ़ कर देना उन हज़ार फ़कीरों को देने से ज़ियादा पसन्द है जिन की दिल चस्पियों का मर्कज़ दुनिया है। किसी ने हज़रते जुनैद रज़ीअल्लाहो अन्हो को येह बात सुनाई तो उन्हों ने उसे बहुत पसन्द फ़रमाया और कहा कि येह शख्स अल्लाह के औलिया में से एक वली है। मैं ने काफ़ी मुद्दत से इस जैसी बेहतरीन बात नहीं सुनी थी। कुछ मुद्दत के बाद हज़रते जुनैद से अर्ज की गई कि उस शख्स का हाल दिगर गू हो गया है और वोह दुकान छोड़ने का इरादा रखता है। हज़रते जुनैद ने उस शख्स की तरफ़ कुछ माल भेजा और कहला भेजा कि इसे अपने मसरफ़ में लाओ और दुकान न छोड़ो क्यूंकि तुम जैसे लोगों को तिजारत नुक्सान नहीं देती। येह आदमी जिस का तजकिरा हुवा है दुकानदार था और फुकरा उस से जो कुछ ख़रीदते वोह उन से उन चीज़ों की कीमत नहीं लेता था।

हज़रते इब्ने मुबारक अपने अतियात सिर्फ उलमा को देते।

हज़रते इबनुल मुबारक रज़ीअल्लाहो अन्हो अपने अताया को उलमा के लिये खास करते थे, किसी ने कहा : आप अपनी खैरात व सदक़ात अगर आम कर देते तो बेहतर होता, उन्हों ने कहा : मैं नबुव्वत के मर्तबे के बा’द उलमा के मर्तबे से अफ्ज़ल कोई मर्तबा नहीं जानता, अगर उन में से किसी का दिल अपनी ज़रूरतों की तरफ़ मुतवज्जेह हो जाए तो उन के इल्मी मश्गले में खलल पड़ जाता है, फिर वोह तालीम व तअल्लुम पर कमा-हक्कुहू तवज्जोह नहीं दे सकेंगे लिहाज़ा उन के लिये हुसूले इल्म की राहों को आसान करना अफ़्ज़लो आ’ला है।

अपने सदक़ात में मुसीबत ज़दा लोगों, खुसूसन अज़ीज़ो अकारिब को तरजीह देनी चाहिये क्यूंकि येह सदका भी है और सिलए रेहमी भी है और सिलए रेहमी का अज्र बे इन्तिहा है जैसा कि सिलए रेहमी के बाब में इस के फ़ज़ाइल मजकूर हुवे हैं।

यह भी ज़रूरी है कि इन्सान ख़ुफ़िया तरीके पर सदक़ात दे ताकि रिया (दिखावा)  की नुहूसत से पाक रहे और लोगों के सामने लेने वाला रुस्वाई से बचे।फरमाने नबवी है कि खुपया सदका अल्लाह तआला के गजब को बुझा देता है।

और इस हदीस शरीफ़ में जिस में उन सात आदमियों का ज़िक्र है जिन्हें अल्लाह तआला अर्श के साए में जगह देगा जब कि अर्श के साए के सिवा कोई साया न होगा. येह भी इरशाद है कि वोह आदमी जिस ने रुपया सदका दिया यहां तक कि उस का बायां हाथ येह नहीं जानता कि दाएं ने क्या दिया है।

हां अगर सदके के इज़हार में येह फ़ाइदा हो कि और लोग भी सदक़ा देंगे तो इस के इज़हार में कोई मुजाअका नहीं बशर्त येह कि रिया और एहसान जताने का इस में दखल न हो जैसा कि फ़रमाने खुदावन्दी है : अपने सदक़ात को एहसान और रिया से बातिल न करो।। सदका दे कर एहसान जताना बहुत बड़ी मुसीबत है, इसी लिये सदके के ख़ुफ़िया रखने को तरजीह दी गई है और अपनी नेकी को भूल जाने का कहा गया है जैसा कि उस शख्स के लिये शुक्र और नेक जज्बात के इज़हार को ज़रूरी करार दिया गया है जिस पर किसी ने एहसान और नेकी की हो जैसा कि हदीस शरीफ़ में है :

किसी ने क्या खूब कहा है :

नेकी और सदक़ात का हाथ जहां भी हो गनीमत है ख्वाह इसे बन्दए शाकिर उठाता है या कुफ्राने नेमत वाला उठाता है। शुक्र गुज़ार के शुक्र में उस के लिये जज़ा है और अल्लाह तआला के यहां काफ़िर के कुफ्र का बदला है।

-इमाम मोहम्मद गज़ाली र.अ., किताब मुकाशफतुल क़ुलूब

 

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Sadqa aur khairat, zakat ki fazilat

 

 

 

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